Wednesday 23 May 2012

उतरा चांद


शोर गुल हल्ला गुल्ला
आंगन में कुहराम मचा था
आसमान में चांद था पूरा
उसे उतार कर लाना था
       खेल खिलौनों से मन ऊबा
       भालू चीते सब नकली
       इस प्यारे चंदा संग मिलकर
       खेल नया कोई रचना था
सीढी आई रस्सी आई
पर चांद तक पहुंच न पाई
जब सबके सब हुए निराश
तब पहुंचे दादी के पास
       धत ! इतनी छोटी सी बात
       चलो करूं मैं एक प्रयास
       पीतल की थाली मंगवाया
       पानी से उसको भरवाया
बिन सीढी के ,बिन रस्सी के
चुटकी में ही बन गई बात
पानी में उतरे सब तारे
और थाली में उतरा चांद…।  

कबड्डी


सामने खेल का मैदान है
बच्चे खेल रहे हैं
कबड्डी……
दो टोलियां आमने सामने खडी हैं
बीच में एक पतली सी लकीर
खेल शुरु होता है
एक बच्चा लम्बी सांस भरता है
और दौड़ पड़ता है
सामने वाले कोर्ट में
छल कबड्डी…
हां यह खेल
छल ही तो है
छलती हैं दोनों टोलियां एक दूसरे को
जो जीत गया बाजी उसके हाथ में

हाथ बढाकर छूना चाहता है
दूसरी टोली के लडके को
सभी बच रहे हैं उससे
जिसे छू देगा
वह खेल से बाहर हो जाएगा
बचने के साथ साथ
उसे पकडने की कोशिश भी कर रहे हैं सभी
एक जुट होकर
पकड लिया और सांस टूट गयी
तो उसकी पारी खतम……

क्रम जारी है
एक आता है ,फिर दूसरा
फिर तीसरा…
सोचती हूं ऐसे ही आमने सामने
खडी होती हैं जिन्दगी और मौत
ललकारती रहती हैं एक दूसरे को
पूरे जीवन काल में
कई बार होता है सामना दोनों का
छू छू कर भागती रहती हैं दोनों
पकडने को आतुर व्याकुल
जिसके हाथ जो आ जाए
कितनी ही बार हम
मौत के करीब जा जाकर लौटते रहते हैं
जीतती रहती है जिन्दगी

पर जीतने के लिए चाहिये
बुलंद हौसले
आत्म शक्ति से लबरेज मन प्राण
जर सी चूक हुई और
पकड ढीली हुई सांसों पर
तो बस जीत गइ मौत
और खेल खतम…॥

Sunday 13 May 2012

जाकी जैसी भावना


सुबह नींद खुलते ही देखा
मोबाइल पर संदेश
रात के ही ,बच्चों के
हैप्पी मदर्स डे मम्मा…
मन खिल उठा
खुश रहो मेरे बच्चों
दिल से आवाज आई…

आज का दिन खास है
सबने अपने अपने ढंग से
याद किया होगा
सेलिब्रेट किया होगा

किसी ने परदेश गई मां के संदूक से
निकालकर पुरानी यादों को
फिर से जिया होगा
उसकी अंगुलियों के स्पर्श को
महसूस कर, पुराने वस्त्रों में
दुहराया होगा बचपन को
दिल ही दिल में…
और मूंद कर आंखें जब आवाज दी होगी
कहीं भी होगी मां
पलटकर देखा होगा उसने और
थपक दिया होगा गालों को उसी पल…

किसी ने मां की तस्वीर से
की होगी बातें
कि क्यों हो जाते हैं हम बडे
क्यों नहीं रह पाते उम्र भर बच्चों जैसे
आंचल की ओट तले
अलमस्त ,बेफ़िक्र…

किसी ने दिया होगा तोहफा कोई
यह सोचकर कि क्या दे सकता है कोई
एक मां को
जो बस देती ही रहती है जीवन भर
सांसों के साथ साथ सहारा संरक्षण प्यार
गढ देती है काया से लेकर
व्यक्तित्व तक को…

मां उम्र के किसी भी पडाव पर हो
अंतहीन प्यार लिए
सर पर आशीष भरा हाथ रखे
होती है…
उसके चरणों में झुककर पा सकता है आदमी
सारे सुख ऐश्वर्य
वह खुद चाहे कितने भी दुख सह ले
फ़ूट नहीं सकते बोल कटु
अपनी संतान की खातिर मुख से…

आज अपनी छवि देखते हुए
दीख जाती है मां की छवि आईने में
कल अपनी छवि निहारते हुए
देखेगी बिटिया मुझको इसी तरह
ममता स्नेह दुलार
एक मां के आंचल से होकर ऐसे ही
तय करता है वक्त का सफ़र…

किसी की बेटी हूं
किसी की मां भी हूं
एक औरत होने के नाते ,
एक जननी होने के नाते
मुख भर आशीष देने की चाह रखती हूं
कि फूले फले दुनिया की
हर मां की हर संतान………|


Wednesday 9 May 2012

लाली


पूरी नींद में थी.
या कुछ जगी
ठीक से कह नहीं सकती
पर उसकी आवाज साफ साफ सुनी
उसने कहा तुम लाली हो

मेरी आँख खुल गई
उँह...
पूछना चाहा- कौन सी 
पर किससे पूछूँ
वह तो छू मंतर हो गया पल में ही....
सोचती हूँ
कौन सी लाली हूँ मैं
कौन सी समझ कर कहा होगा उसने
आँखों की ---
जो अत्यधिक प्यार मनुहार से
खुमार बनकर तैर जाती हैं..
पलकें भी नहीं खुलतीं तब
बोझिल बोझिल सी
लगती हैं
अपने ही भार से झुकी झुकी

या गालों की---
जो शर्मो हया के पलों में
छा जाती है गुलाल बनकर
नजरें फिर भी झुकी ही
होती हैं
और इसे ही नारी सुलभ लज्जा
कहा जाता है

या लाली हथेलियों की---
जो हिना रचती है
खुद पिसकर ,सुहाग और
सौभाग्य का प्रतीक बनकर
खुशबू भरी
सुंदरता भरी ,मोहक और लुभावनी

या फिर
महावर की लाली
कहा होगा.?
जो पाँवों का सिंगार है
नई नवेली दुल्हन
आलता भरी थाल में डुबोकर
पाँव अपने जब चलती है
उसके बिछुओं की रुनझुन से
एकाकार हो
उसके तलवों के लाल लाल
निशान घर भर को अपने
शुभागमन का संदेश देते है
और कामना करते हैं
रंगों से भरे रखने का
घर परिवार को
खुशियों से भरे रखने का
हर एक सदस्य को
हर पल
उम्र भर....

अभी सोच ही रही थी कि
आभास हुआ वह आस-पास
ही हो कहीं...
मैंने तपाक से पूछ ही तो लिया
कहो ना कौन सी लाली 
कौन सी लाली हूँ मैं.
एक नजर मधुर मधुर
निहार कर कहा उसने-
भोर की......
भोर की लाली हो तुम
स्निग्ध ,सुहानी
रंग जाता है मेरे मन का आकाश
तुम्हारे स्मरण मात्र से
एक-ब-एक..
.

जिन्दगी एक सवाल करती है


जिन्दगी एक सवाल करती है
कि हमें उससे
प्यार है कि नहीं...
मन में जबाब ढूँढना है
कि उसका हर फैसला
हमें दिल से स्वीकार है कि नहीं..
  
वह कहती है कि
मैं तो एक राही हूँ
कभी धूप से भी गुजारूँगी
तो मुझसे गिला नहीं करना
कोई छाया तलाश कर लेना....
 
यह भी कहती है कि
कई रँग हैं उसके
कभी आँसू भी देगी आँखों को
तो कोई शिकवा नहीं करना
कोई कँधा तलाश कर लेना...
 
न कोई सागर न कोई पर्वत ही ,
न कोई जँगल हमें सुकून दे पाये
हमको तलाश करनी है
अपने भीतर ही
जिन्दगी के माय़ने सभी....

इतने रूपों में खड़ी है
हमारे आगे वह
नहीं पहचाने तो हम गुनहगार हुए
इतनी प्रखर चेतना
इतना विवेक मिला हमको
नहीं उपयोग करें तो
हम गुनहगार हुए...

जिन्दगी जब सवाल पूछेगी
ऐसा हो ना कि हम
न कुछ भी कह पाएँ
अभी तो इतना ही जानना है हमें
कि इस जबाब के लिए
हम तैयार हैं कि नहीं
  

                

मौसम का अनोखा अंदाज


है तो मौसम पत्तझड़ का
कई पेड़ ऐसे हैं जिनपर
एक भी पत्ता नहीं
पर कई ऐसे भी हैं जो
लहलहाए हुए हैं..
फूलों से ,मंजरियों से
इनपर कौन सा मौसम है..?
यह मौसम का अपना
अनोखा अंदाज है
खुशियां बांटने का....
बारी-बारी....

वे जो खाली खाली दीख रहे
साधु महात्मा की तरह
नए कोंपलों के इंतजार में
शोर नहीं मचाते...
चुपचाप जैसे ध्यान में मग्न हैं
उनपर चिड़ियों के घोंसले भी हैं
बया के अधिकतर ,
एक से बढकर एक खूबसूरत
कुछ पूरे,कुछ अधूरे भी
पत्तों में छुपाकर बनाए गए होंगे
पर अभी दीख रहे...
.
किताबों में पढी बात
आँखों के सामने हैं
कि...
बया आधा आधा कई
घोंसला बनाकर
अपनी दोस्त बया को दिखलाता है
उसे जो पसंद आ जाए उसे ही
दोनों मिलकर पूरा करते और
अपनी गृहस्थी शुरु करते हैं...
वाकई
अनोखी अदा बया की....
 
मेरे अहाते में है सागवान का
बड़ा सा पेड़.. ..
खूब सारे बड़े बड़े पत्तों से भरा
गर्मी और वर्षा के लिए
छतरी का काम करता है
घनी छाया और फूलों की अनवरत वारिश
नन्हे नन्हे फूल टुप टुप जब गिरते हैं
कई कई पत्तों को छूते हुए
उनसे विदा लेते हुए
नीचे आते हैं
झिर्र झिर्र की आवाज लगातार आती रहती है
शाम सबेरे के शांत वातावरण को
अपने स्निग्ध गुंजन से
गुंजायनमान रखती हैं
                
सामने एक आम का पेड़ है
अभी कल तक जैसे खाली खाली था
आज अचानक देखती हूँ
मंजरियों से लदा हुआ है
कब आईं इतनी मंजरियां
कब छाई इतनी हरियाली
ताज्जुब.. !

ये कपास के दो पेड़ हैं पिछवाडे में
एक बिल्कुल पत्रविहीन
दूसरा हरा भरा
एक ही जमीन एक ही हवा पानी
एक ही माहौल
सगे भी होंगे दोनों
पर प्रकृति का अपना ही अंदाज है

कब किसे क्या देगी
इसपर एकाधिकार है प्रकृति का
हजारों लाखों प्रकार के
फूल पत्ते रंग और सुगंध
तरह तरह के मौसम
पतझड़ और बहार
शिशिर हेमंत बसंत
शरद ग्रीष्म और बरखा..

ताप से जलती धरती को
शीतल फुहारों की सौगात
ठंढ से ठिठुरती हवा को
सुहानी धूप का वरदान
मौसम की आशिकाना
अदाओं का अनवरत एहसास
शब्दों से परे
वर्णन से परे
इसका अनोखा एवं अद्भुत अंदाज..........