Sunday 4 March 2012

आज का दिन


आज की ये भोर
और आज की किरण
आज का समय यह
आज का ये दिन…
   
आओ मिलकर इनको
हम खास बना लें
कि याद करें इनको
फिर सारी उम्र हम…
 
कुछ इस तरह से खोलें
पलकों को आज अपनी
पाया हो हमने जैसे
अभी अभी जनम…

ऐसे भरें उसांसें कि
भीनी भीनी खुशबू
लेके ही उड रही हो
आज मनचली पवन……
  
ऐसे चलें मचल कर
हाथों में हाथ लेकर
जैसे कि साज कोई
बजता हो छन छनन…

बांहों में आज ले लें
तारों भरा गगन
सपनों की रौशनी से
जगमग करे नयन…।



Saturday 3 March 2012

तो क्या गुनाह होता


मुझे बेकरार करके
मेरा करार लेके
मेरी राह भी देखी
मुझको पुकार करके
      जरा इन्तजार करते
      तो क्या गुनाह होता…?

ढूंढा तुम्हीं ने मुझको
कहा था मुझसे एकदिन
मन ऐसे मिल गए फिर
पानी में जैसे चन्दन
     साथ साथ चलते
     तो क्या गुनाह होता ?
   
हम थे बहुत अकेले
जब तक तुम मिले थे
भाते नहीं थे मेले 
जब तक तुम मिले थे
    अब भूलने कहते
    तो क्या गुनाह होता ?

कौन आता है


कौन आता है तुम्हारे
पीछे पीछे
मुड के एक बार जरा
देख तो लो

कौन देता है आवाज
तुम्हें शामो सहर
रुक के एक बार जरा
सुन तो लो

क्या काम है यह भी पूछो
क्या नाम है यह भी पूछो
क्या वजह है
इस तरह चलने का
कैसा रिश्ता है जो
समझ नहीं आता
घडी भर कहीं ठहर के
जरा पूछ तो लो……

कोई नाता ही रहा होगा
किसी जमाने का
कोई कारण जरूर होगा साथ आने का

कोई बिछडा हुआ साथी होगा
स्नेही कोई या संगी होगा

तनिक ठहर के तुम्हीं
सोच तो लो…

कहीं तुमने ही आवाज देकर
बुलाया तो नहीं,
याद करो
साथ चलने का वादा करके
भुलाया तो नहीं,
याद करो

ऐसे मुख मोड के जाना
अच्छा नहीं
अनसुनी करके गुजर जाना
अच्छा नहीं

कट जाएगा सफर आसानी से
साथ आने दो
जन्मों के फासले हों तो
अभी मिट जाने दो
यूं ही कोई साथ भला आए क्यों
बेवजह नाम लेके बुलाए क्यों

पीछे पीछे जो चला आता है
दो घडी रुकके
साथ ले तो लो…।

काश


काश मेरे शब्दों की
आंखें होतीं
तो दूर से भी तुमको
निहार के आतीं

तुम जो चुपचाप टहलते होते
बनके साया संग संग चलतीं…
 
काश मेरे शब्दों की
बाहें होतीं
तुम्हें घेरे में सदा बांध के रखतीं

एक पल को भी अगर तन्हा पातीं
छूके चुपके से दुलारा करतीं…

काश मेरे शब्दों की
जुबां ही होतीं
आवाज देके तुमको पुकारा करतीं

तुम जो खोए से रहा करते हो
तुम्हारे मन को ये बहलाया करतीं
  
काश मेरे शब्द
महज शब्द नहीं रुह होतीं
सुख दुख में
तुम्हारी हमसफ़र बनतीं
कभी पलकों को पोंछ देती कभी
बालों में उंगलियां ही फिराया करती…


ये मेरे शब्द नहीं
मन के साथी हैं मेरे
इनके सहारे जहां चाहूं चली जाती हूं
जितना भी दूर होके रहो तुम
खुद को तुम्हारे और करीब पाती हूं…॥



रचने वाले

रचने वाले
ये तूने  क्या रचा..
इसे फिर चाक पे रख के ढालो
ये संवर जाएगा
तनिक प्रयास से ही
इसकी माटी को फिर से
रूंधो तुम…

इसकी सोचों में 
स्वार्थ की बू है 
इसकी करनी में फर्क कथनी से
इसके दिल में दया की 
ममता की 
सूखती जाती जैसे निर्झरनी

बातों बातों पे क्रोध 
करता है 
बर्बरता है कर्मों पर हावी 
इसकी बातों में सच नहीं होता 
हो गया झूठ का ऐसा आदी 

कब किसका गला घोंटेगा 
खुद इसको भी 
मालूम नहीं 
ये रचना है तेरी जगती का 
सबसे उत्तम इसे क्या ज्ञात नहीं ?

इसकी माटी से धूल कंकड़ को
ठीक से छान के 
गढ़ना इसको
इसके दिल को तनिक
नरम रखना
इसे तराश के कुछ और
निखार दो तुम 

रचने वाले
तूने  जो इंसान रचा
इसपर नजर फिर से डालो 
इसकी माटी को फिर से रूंधो तुम
इसे फिर चाक पे रख के ढालो........ 



Friday 2 March 2012

बैठो मेरी छाँव


स्नेह प्रेम की धरा मखमली
नरम तुम्हारे पाँव
घड़ी दो घड़ी भूल के सब कुछ
बैठो मेरी छाँव.....
   भाग दौड़ करते करते तेरे
   दुखते होंगे पाँव
   घड़ी दो घड़ी भूल के सब कुछ
   बैठो मेरी छाँव...
.
चिड़ियों की बोली सिखला दूँ
और भँवरों का गाना
मस्त पवन की चाल सिखा दूँ
कलियों सा मुस्काना
 
       हाथ थाम कर ले जाऊँगी
       अरमानों के गाँव..
       घड़ी दो घड़ी भूल के सब कुछ.
       बैठो मेरी छाँव..
.
रोज सबेरा आ ही जाता
अँधियारे के बाद
सुख दुख आते बारी बारी
गाँठ बाँध लो बात.
.
   सुख सुकून के लम्हे लेकर
   बैठी हूँ इस ठाँव
   घड़ी दो घड़ी भूल के सब कुछ
   बैठो मेरी छाँव....

चाँद को देखो घटता बढता
रहता है हर रात
फिर भी करता है अठखेली
चाँदनियों के साथ

   सुख सपनों से आँख आँजकर
   रखूँगी अपनी छाँव     
   घड़ी दो घड़ी भूल के सब कुछ
   बैठो मेरी छाँव.....